साड़ी क्यों नहीं पहनती तुम?

साड़ी क्यों नहीं पहनती तुम?
पहना करो, अच्छी लगती हो….
सूखे पत्तों के बीच,
गुलाब की पंखुड़ी लगती हो..
शायद तुम्हें पता नहीं
नजरें बहुत सी तुम पर रहती हैं..
लेकिन उत्सवों में तुम,
आंखों का नूर बन उभरती हो..
देखने को नज़ारे और भी हैं
दिल बहलाने के लिए फसाने और भी हैं..
मगर तुम्हारे शबाब़ जैसा
आफ़रीन पूरे कयानात में नहीं…
साड़ी के पल्लू को संभालती
मेरे ख्वाबों की बेचैनी लगती हो..
साड़ी क्यों नहीं पहनती तुम?
पहना करो, अच्छी लगती हो….




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